भारतीय न्यायपालिका

एक बुजुर्ग किसान थे उनका एक छोटी से जमीन का मुकदमा जो करीब 20 वर्ष पुराना था , वे वह मुकदमा जीत गए ।
न्यायधीश महोदय ने उन्हें बधाई दी ।
बुजुर्ग बोलेे -धन्यवाद जज साहब भगवान करे आप दरोगा बन जाएं ।
जज साहब एकदम आवक रह गए और बुजुर्ग से कहा - बाबा जज दारोगा से बड़ा होता है ।
तो बुजुर्ग बोले जज साहब आपने इस मुकदमे में 20 साल में  मुझे मेरा हक़ दिलाया है जिसमे मैं तो बर्बाद होगया मगर आज से 20 साल पहले एक दारोगा जी ने कहा था 2000 रूपये दो मैं इस मामले को अभी रफा दफा करता हूँ ।

कहने सुनने को बेशक ये एक व्यंग हो या कोई किस्सा मगर मौजूदा न्यायव्यवस्था का यह एक सटीक उदाहरण है।

मित्रो हालांकि न तो मैं कोई बुद्धिजीवी हूँ न ही न्याय सहिंता का कोई विशेष जानकार भारतीय संविधान और न्याय व्यवस्था में मुझे पूर्ण निष्ठा है और इन पर टिप्पणी करने का कोई अधिकार नहीं है मगर मैं एक आम आदमी हूँ और एक आम आदमी न्यायपालिका के प्रति क्या नजरिया रखता है उसी नजरिये को मैं अपने शब्दों में लिपिबद्ध कर रहा हूँ ।

एक कहावत है कि दुश्मनों को भी अस्पताल और कचहरी का मुंह न देखना पड़े। इसके पीछे तर्क यही है कि ये दोनों जगहें आदमी को तबाह कर देती हैं। और जीतनेवाला भी इतने विलंब से न्याय पाता है, वह अन्याय के बराबर ही होता है। छोटे-छोटे जमीन के टुकड़े को लेकर पचास-पचास साल मुकदमे चलते हैं। फौजदारी के मामले तो और भी संगीन स्थिति है। अपराध से ज्यादा सजा लोग फैसला आने के पहले ही काट लेते हैं। यह सब केवल इसलिए होता है कि मुकदमों की सुनवाई और फैसले की गति बहुत धीमी है।

न्यायपालिका की देरी का ये आलम
है कि अधिकांश मामलों में पीड़ित पक्ष न्याय की उम्मीद करते करते थक हार कर बैठ जाता है
राष्ट्रीय अदालत प्रबंधन की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक बीते तीन दशकों में मुकदमों की संख्या दोगुनी रफ्तार से बढ़ी है। अगर यही स्थिति बनी रही तो अगले तीस वर्षों में देश के विभिन्न अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या करीब पंद्रह करोड़ तक पहुंच जाएगी। इस मामले में विधि एवं न्याय मंत्रालय के आंकड़े भी चौंकाने वाले हैं। रिपोर्ट के अनुसार देश में 2015 तक देश के विभिन्न अदालतों में साढ़े तीन करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित थे। इनमें सर्वोच्च न्यायालय में 66,713 उच्च न्यायालयों में 49,57,833 और निचली अदालतों में 2,75,84,617 मुकदमे 2015 तक लंबित थे। सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही यह आंकड़ा 58.8 लाख है जिसमें से 43.7 लाख मामले आपराधिक हैं । उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों में से 82 प्रतिशत ऐसे हैं जो दस साल से ज्यादा समय से वहां हैं. और निचली अदालतों में करीब पांच हजार और उच्च न्यायालयों में करीब 45 प्रतिशत जजों के पद खाली हैं ।

आम जन का न्यायपालिका की लेटलतीफी का गहरा असर दिखाई देता है और यही कारण रिश्वतखोरी को भी बढ़ावा देता है ।
कोई भी व्यक्ति चाहे वो निर्दोष हो अगर वो किसी भी मामले में फस जाये तो पुलिस को रिश्वत देकर निकलना ज्यादा आसान समझता है क्योंकि उसे पता है न्यायपालिका जब तक उसे निर्दोष साबित करेगी तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और समाज उसे अपराधी मान चुका होगा ।
तलवार दंपत्ति इसका हालिया उदाहरण हैं ।

खैर बस ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ की न्यायपालिका में हमारी निष्ठा को बनाये रखना इसी के साथ मैं अब्बू जाट अपनी लेखनी को विराम देता हूँ

नमस्कार 🙏🙏

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