जनता का न्याय
शराब के नशे में वह किशोरवय लड़का अपने भव्य मकान के मुख्य द्वार के निकट सड़क पर खड़ा था। वह एकाएक ही खड़े-खड़े लड़खड़ाकर, बाहर की तरफ़ सड़क के बीचोंबीच गिर पड़ा। शहर के एक मशहूर अफसर का बेटा था। इसलिए कालोनी के दो-एक लड़कों ने देखा तो तुरंत दौड़कर उसे उठाया। उसके कपड़े झाड़कर उसे खड़ा किया। तभी अचानक एक साइकिल सवार उसके निकट से गुजरा।
उस नशेड़ी युवक को न जाने क्या सूझा कि लपक कर उसने उस साइकिल सवार को पकड़ लिया। जब तक कि साइकिल वाला व्यक्ति कुछ समझ पाता, उसने अंधाधुंध कई थप्पड़ उसे जड़ चुका था। खुद वह अब भी खड़े-खड़े नशे की झोंक में लड़खड़ा रहा था।
साइकिल वाले की साइकिल एक तरफ जाकर गिरी और वह हक्का-बक्का रह गया। उसके गले से बड़ी मुश्किल से कुछ शब्द निकल पाए, "क...क...क्या बात..."
उस लड़के ने फिर दो-एक थप्पड़ और उसे जड़ दिए, "स्साले...आंखें फूट गई हैं। धक्का मारकर गिरा दिया।"
शोर-शराबा सुन कर कई आदमी यह दृश्य देखने उस स्थान पर एकत्र हो गए। किसी को भी वास्तविक घटना का कुछ पता न था। किंतु दो-एक व्यक्तियों ने आगे बढ़कर उस साइकिल वाले को पकड़ लिया। भीड़ एकत्र हो चुकी थी। कोई चीखा, "स्साले जानता नहीं, उनके पिता इस शहर के प्रख्यात व्यक्ति हैं और एस.पी. सिटी के खास दोस्तों में हैं। आँखें खोल कर नहीं चलता...मारो हरामजादे को।"
साइकिल वाला व्यक्ति घबराहट की अधिकता में अब रोने लगा था।
भीड़ में से ही किसी ने दबे स्वर में कहा, "साइकिल वाला तो निर्दोष है। यह लड़का तो खुद ही नशे की झोंक में लड़खड़ा कर अपने आप ही गिरा है।"
किसी ने उस बोलने वाले को तुरंत ही डपट दिया, "चुप बे, क्यों आफत अपने गले में डालता है।"
तभी दो-एक लड़कों ने साइकिल वाले को पीटना छोड़, इस बोलने वाले को पीटना शुरू कर दिया, "स्साले बदमाशी दिखाता है। मारो बे इस साले को। बहुत बोलता है।"
अब लोगों ने इस बोलने वाले को पीटना शुरू कर दिया था।
साइकिल सवार जो पहले पिट रहा था, वह मौका देखकर निकल गया था।
वह निर्दोष व्यक्ति जिसने इंसाफ की बात कही थी, लोगों की मार से छूटने के लिए छटपटा रहा था और वहां मौजूद लोग अब भीड़ में मिलकर या तो तमाशा देख रहे थे, या उसे पीट रहे थे।
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