दहलीज का अंतर

आज बात करते हैं स्त्री की इच्छाओं व अधिकारों की.... स्त्री की दशा सदैव से शोचनीय ही रही है, आज नारी दुनिया के हर क्षेत्र में अग्रणी हो चुकी है अब वह पुरुष की आश्रित नहीं रही, अपितु आश्रयदाता बन कर उभर रही है।

किन्तु नारी सशक्तिकरण के मुद्दे पर यदि हम बात करें तो हम देखते हैं कि भले ही आज की नारी सशक्त है अपने पैरों पर खड़ी हैं, दुनिया के हर क्षेत्र में आगे हैं, किसी भी विषय किसी भी स्थान से अछूती नहीं है, बल्कि हर जगह वह प्रगति और उन्नति के साथ पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं किन्तु क्या उसको पुरुष की तुलना में वह सम्मान मिल पाया है जिसकी वह अधिकरिणी है? यहां पर सम्मान भी परिस्थिति गत हो चुका है जानते हैं कैसे? वो ऐसे कि यदि अधिकारों की बात की जाए तो हम देखते हैं कि जब तक स्त्री विवाहिता नहीं होती उसके पास व्यापक अधिकार होते हैं आकांक्षाएं होती हैं उन्हें पूरा करने का जज्बा होता है माता पिता का प्यार सम्मान स्नेह और शुभकामनाएं कन्याओं के साथ होती है। किन्तु विवाहित होते ही उनका आत्म सम्मान, अधिकार, खुशियां सब किनारे हो जाती हैं। वो सेविका, दासी, कुलवधू और खानदान की इज़्ज़त मात्र बन कर ही सिमटी रह जाती हैं। उनके पास न तो जीवन जीने का लक्ष्य होता है और जो बेचारी लक्ष्य तय कर किसी मुकाम पर हैं वे भी उसको केवल दूसरों की अनुकंपा और दया के कारण केवल ढो रही होती हैं फिर चाहे वो नौकरी हो या कोई शौक।

एक लड़की होना बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है क्योंकि लड़की को खुश भी रहना होता है माता पिता के सम्मान से समाज में सर्वत्र इज्जत और मान मर्यादा के आभूषण को पहनकर स्त्री अपनी समस्त भूमिकाओं में खरी उतरने की भरसक कोशिश करती है और ये स्थितियां अचानक से तब बदलती हैं जब वह विवाहिता हो जाती है

किसी के घर की बहू बनने के पश्चात उसके जीवन का स्वर्णिम अध्याय मानो समाप्त हो जाता है बहुत ही कम स्त्रियां उन भाग्यशाली स्त्रियों में हैं जिन्हें ससुराल पक्ष में सम्मान की प्राप्ति होती है प्रेम, अधिकार, हक। लगभग 75% स्त्रियों को न के बराबर प्राप्त होता है ऐसी ही एक छोटी सी प्रस्तुति है एक लघु कथा के रूप में...जहां स्त्री का सम्मान तो क्या उसकी उपस्थिति पर भी संदेह होता है।

रचना अपने माता पिता की इकलौती, नाज़ों में पली बढ़ी बेटी थी और बहुत दुलारी भी। माँ बाबूजी और भाई की लाडली । वो बहुत ही सुंदर थी, गौर वर्ण, काले घने केश ,सलोना सा मुखड़ा ,जो भी उसे देखें, देखता ही रह जाता। वह बड़ी ही कुशाग्र बुद्धि की थी और रूप के साथ साथ अनेकानेक गुणों से युक्त साक्षात सरस्वती थी..!

एक विवाह के उत्सव में उसे संजय की माँ लीला ने देखा, और रचना का हाथ अपने एकमात्र पुत्र संजय के लिए मांग लिया, रचना के माता पिता को रिश्ता पसन्द आया और विवाह की बातें तय हो गयी। रचना के घर परिवार के लोग बड़े ही खुश थे कि, बैठे बिठाए रिश्ता खुद चलकर आ गया और संजय भी सुदर्शन युवा था। और अकेला भी, मात्र एक बहन थी और अपने पैरों पर भी खडा था। फिर क्या था बड़े ही धूमधाम से रचना का विवाह संजय से हुआ।

विवाह के कुछ दिनों तक तो सब सामान्य रहा किन्तु कुछ समय बाद रचना और संजय में थोड़े बहुत मतभेद हुए, धीरे धीरे ये मतभेद बढ़ने लगे। उसके अति रूपवान होने से संजय सदैव शंका में रहता। और उसके चरित्र पर संदेह करता।

रचना ने अपनी सास लीलावती को ये सभी बातें बतायी। किन्तु उनमे एकमात्र दुलारे पुत्र को फटकार लगाने का तो साहस ही न था, और दूसरे उन्होंने उसे प्रेम से समझाना भी नहीं चाहा। और रचना और संजय में मतभेद बढ़ते गए। हालांकि ससुर रमाकांत जी रचना को बेटी के जैसा ही प्रेम करते थे किंतु पुत्र मोह में वे भी अंधे ही थे। फिर भी रचना ने धैर्य का साथ न छोड़ा। धीरे धीरे रचना ने संजय का विश्वास जीत लिया, और सास ससुर के आगे भी वो अपनी इच्छाओं का जिक्र न करती। किन्तु इन सब के चक्कर मे उसका आत्म खत्म हो गया। अपने माता पिता भाई बहन सहेलियां, नाते रिश्तेदार सब छूट गए ।

फलतः बीतते वक़्त के साथ रचना का जीवन दुष्कर हो उठा । और संजय की उपेक्षा के कारण अब रचना के सास ससुर भी उसकी इज़्ज़त न करते।

उपेक्षा का स्तर यह था कि, रचना की उस घर मे उपस्थिति तक नगण्य थी। यहाँ तक कि, छोटी छोटी बातों में भी उसकी उपेक्षा होने लगी। मसलन उसे कही भी बाहर जाना नहीं है, किसी फंक्शन का इनविटेशन होता तो रचना को छोड़ घर के सभी सदस्य सज धज कर जाते। कोई घर आता तो, कोई खास परिचय भी किसी से नहीं करवाया जाता। मेहमान आते तो वह किचेन में खड़ी केवल नाश्ता, खाना ही बनाती, कभी किसी से रूबरू नहीं होती। सबके खा पी लेने के बाद अंत मे रचना अकेली किचेन में खाती। बचा खुचा जो भी मिलता। कोई उससे ये भी न पूछता की तुम्हे मिला या नहीं क्योकि यदि नहीं होता तो भी दोष रचना का ही माना जाता कि इतना कम क्यो बनाया? कल तक की चंचल हिरनी आज गाय सी सरल हो गयी। लाख दर्द होता शरीर मे किन्तु उफ़्फ़ न करती।

जो लड़की अपने मायके का अभिमान थी वो ससुराल का यह तिरस्कार झेल रही थी, पर उसका दोष क्या था? शायद कुछ खास नही सिर्फ इतना जो दुनिया की हर बहू का होता है कि " वह दूसरे घर की लड़की होती है और सास ससुर की संतान नहीं होती उनके बेटे की दासी और घर की गुलाम बना के लायी जाती है।"

यही सोच है जाने कितने ही घरों की। खास कर सास व ननद तो ये रवैय्या अवश्य अपनाती हैं। कि किससे बात करो किससे नहीं। कहाँ जाओगी कहाँ नहीं! क्या पहन कर जाओगी और कितनी देर के लिए जाओगी? ये सब दूसरे लोग मिल के निर्णय लेते हैं। एक बहू को उसके खुद के बारे में निर्णय लेने का भी अधिकार नहीं होता। वो अगर अपने घर भी जाना चाहती है तो 10 लोगों की अनुमति लेने के बाद ही जा सकती है। क्या ये मानसिक गुलामी तनाव को जन्म नहीं देती..? क्यो घर के बड़ों की इच्छा के अनुसार वो अपने परिधान तक का चयन करती है? आखिर क्यों? क्या आपके पास इन सवालों के जवाब हैं?

एक दिन रचना की तबियत खराब थी बिस्तर से उठ पाने की भी हिम्मत न थी उसमें किन्तु सुबह से न उठ सकने की वजह किसी ने नही पूछी ,सिर्फ सास ने बमकते हुए कहा कि " आज सोई ही रहेंगी क्या महारानी ?" क्या आज घर के लोग चाय वाय नही पियेंगे ?? .. जब उसको संजय ने बुखार में तड़पते देखा तो उसे कुछ अजीब लगा ..कि उफ़्फ़ अब नाश्ता वगैरह कौन बनाएगा ..घर मे उसकी तबियत का ख्याल ,दवाइयों और डॉक्टर को दिखाने की बजाय लोगों ने अपने पेट पूजा के इंतजाम में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई। और खुद तो सबने ब्रेड वगैरह खा लिया ,किन्तु रचना को भूल गए..! न उसने सुबह से एक भी कप चाय पी थी न ही कुछ खाया था फलतः उसकी हालत और खराब हो गयी। संजय ने भी उसकी सुध न ली।

रचना को अपने मायके की याद आने लगी कि, जब वो वहां बीमार पड़ती थी तो कैसे माँ और बाबूजी उसके पीछे लगे रहा करते थे कि बेटा दवा खा ले, कुछ खा ले ..माँ अपने हाथों से कौर बनाकर उसे खिलाती थी ...सोचते सोचते रचना की आंखें भर आयी और हार कर रचना ने मायके फ़ोन किया ..भाई ने फ़ोन उठाया तो किन्तु रचना कुछ बोल न सकी..बेहोशी में बड़बड़ाती रही..! भाई विनय को ये कुछ अजीब लगा उसने तुरंत रचना के ससुराल फ़ोन लगाया ..उसके मायके से फ़ोन आते ही सास ससुर आदि बिगड़ गए और बीमार रचना को कोई इलाज देने की बजाय उसको बातें सुनाने लगे कि, क्या हम लोग ख्याल नहीं रखते जो मायके में शिकायत कर रही हो? बात बढ़ते बढ़ते संजय का क्रोध चरम पर पहुच गया ...और संजय ने आव देखा न ताव, और अभी गुस्से में रचना पर हाथ उठाया ही था कि अचानक रचना के भाई विनय ने चिल्लाकर कमरे में प्रवेश किया ..! और संजय और उसके घर वालो की भर्त्सना करते हुए कहा कि " तुम लोग तो जानवर से भी बदतर व्यवहार कर रहे हो उसके साथ बुखार से तप रही है बेचारी '' दवा दारू तो दूर तुम सब तो उसे एक बूंद पानी भी नहीं पूछ रहे ..अरे ' कोई इतना निर्दयी कैसे हो सकता है? इतना तो जानवर को पालते हैं लोग ..' तो जानवर से भी लगाव हो जाता है लोगों को..! अब मैं इसे इस घर मे सड़ने नहीं दूंगा ..बस मेरी बहन और नहीं ... !! रचना की आंखों में प्रेम और दुख के आंसू बहने लगे ..उसके ससुराल में उसकी दुर्दशा देख उन सब को बहुत कुछ कहकर विनय रचना को लेकर घर आ गया।

रचना जैसी अन्य बहुत सी बहुये भी यह दुर्व्यवहार झेल रही हैं और इस प्रकार का मानसिक उत्पीड़न झेल रही हैं। कहने को कोई उनपर हाथ नहीं उठाता किन्तु वे जो आघात झेलती हैं वो भीतर ही भीतर टीसता है..वो दर्द अकथनीय है असहय है। ये तो रचना की किस्मत अच्छी थी कि उसके मायके वालों का साथ मिल गय , वरना उसका क्या होता? विवाह के चार माह के भीतर ही एक राजकुमारी की तरह पाली गयी लड़की आज नौकरानी से भी गयी गुज़री लगने लगी थी..! आखिर मायके में महत्वपूर्ण और दुलारी लड़की ससुराल की दहलीज पर कदम रखते ही महत्वहीन और अस्तित्वहीन क्यो बना दी जाती है..?

मैं पूछता हूं आखिर क्यों? क्यों किसी की संतान को संतान नहीं समझते हैं लोग? क्या बहू किसी की बेटी नहीं होती? और उस पति की क्या जवाबदेही है अपनी पत्नी और अपने वैवाहिक जीवन के प्रति ..? जब सम्मान नहीं कर सकते तो ब्याह कर के क्यों ले जाते हो? जब प्रेम नहीं है तो सात फेरे ही क्यो लिए जाते हैं?

कई मसले मैने सुने हैं जहां विवाह के बाद लड़की को पता चलता है कि उसका पति तो किसी और से प्यार करता है इसलिए वो ब्याहता पत्नी को अपनी पत्नी का दर्जा नहीं दे सकेगा ..! आखिर वो लोग किसी लड़की का जीवन बर्बाद क्यों करते हैं? विवाह कर के उसके बाद तलाक लेना.. एक लड़की का पूरा जीवन व्यर्थ बना देता है ..! उसपर तलाकशुदा का ठप्पा भी लग जाता है और समाज के ठेकेदारों द्वारा कभी उसके चरित्र पर तो कभी किसी अन्य कारण को मुद्दा बना कर पुनः स्त्री को अपमानित किया जाता है..!!

उफ़्फ़ कब बदलेगी भारतीय समाज की तस्वीर जहां स्त्री को दासी न मान कर लक्ष्मी का दर्जा दिया जाएगा .. शक्तिपूजक लोगों में कन्या जन्म पर उल्लास का माहौल होगा और लक्ष्मी पूजा करने वाले लोगों में, घर की वास्तविक लक्ष्मी को पूजित समझ जाएगा...! आखिर कब अपने घर की दहलीज पर बैठी लक्ष्मी स्वरूपा बहू को सम्मान देंगे लोग? अब खत्म होगा ये मायके और ससुराल की दहलीज का अंतर? अभी इन अनुत्तरित प्रश्नों को मन मे लिए मैं अपनी लेखनी को विराम देता हूं

टिप्पणियाँ

Unknown ने कहा…
Thanks for it. Aapki ray kaho ya margdarsan bahut achacha h. But ye samman dilane ke lie sara ka sara nazaria badalna hoga samaj ka. So aap or ham milkar iase sajha karte h logo ke sath. Soch badlegi tabhi to badlega India......thanks i like it
अब्बू जाट ने कहा…
धन्यवाद जी
अब्बू जाट ने कहा…
धन्यवाद जी

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